• mainslide1
  • mainslide2
  • mainslide3
  • mainslide4
  • mainslide5
  • parad-shivling
  • navpashanam-shivlling
  • parad-mala
  • navpashanam-mala
  • parad-gutika
  • navpashanam-gutika

शिवशक्ति ज्योतिष एवं पराविज्ञान शोध सेवा केंद्र

पितृ कल्याण अनुष्ठान

वैदिक और तंत्रोक्त अनुष्ठान

पूजा, अर्चना, मंत्र जाप के अतिरिक्त वैदिक परम्परा में विभिन्न प्रकार के देवी देवताओं और शक्तियों की विभिन्न वैदिक और तंत्रोक्त विधि के अनुसार अनुष्ठान करने के भी निर्देश दिए गये हैं. इन अनुष्ठानों के द्वारा इच्छित शक्तियों की कृपा ज्यादा तीव्रता से पाई जा सकती है. इस हेतु विभिन्न शुभ मुहूर्तों पर जातक अपने ज्योतिषियों के सुझाव पर विभिन्न प्रकार के अनुष्ठान करवाते हैं जिनसे उनकी जन्मकुंडली अथवा गोचर के दोषों का निवारण एवं शुभ फलों की प्राप्ति तथा उन्हें कुछ विशिष्ट प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं।

इन्हीं पूजाओं में से एक है पितृ कल्याण अनुष्ठान। इस अनुष्ठान को पितृ गायत्री मंत्र के जाप के माध्यम से किया जाता है तथा इसके द्वारा मूल गायत्री शक्ति के माध्यम से अपने पितृ देवताओं का कल्याण किया जाता है।

मुहूर्त के अनुसार यह पूजा किसी भी मंदिर, विशिष्ट धर्म क्षेत्र जैसे हरिद्वार, ऋषिकेश, बद्रीनाथ, गया, वाराणसी, उज्जैन, नैमिषशारण्य अथवा किसी पवित्र नदी के तट पर की जाती है. ऐसे विशिष्ट धार्मिक स्थानों पर इस अनुष्ठान को करने से इसके फल सैकड़ों गुना अधिक हो जाते हैं।

आज के इस लेख में हम पितृ कल्याण अनुष्ठान की विधि के बारे में चर्चा करेंगे तथा इसमें प्रयोग होने वाली महत्वपूर्ण क्रियाओं के बारे में भी विचार करेंगे।

    वैदिक ज्योतिष के अनुसार पितृ कल्याण अनुष्ठान का आयोजन उन पूर्वजों के लिए किया जाता है जिनकी मृत्यु के पश्चात किये जाने वाले संस्कार या तो किसी कारणवश किये ही न गयें हों अथवा ऐसे संस्कार उचित विधि से न किये गये हों जिनके कारण ऐसे पूर्वजों अर्थात पित्रों को कई बार मृत्यु के पश्चात अपने लिए निश्चित लोकों की प्राप्ति नहीं हो पाती तथा ऐसे पितृ इधर उधर ही भटकते रहते हैं तथा कष्ट में रहते हैं तथा कई बार ऐसे पितृ अपने वंशजों को स्वप्न के माध्यम से अथवा किसी अन्य प्रकार के माध्यम से यह संदेश भी देने का प्रयास करते हैं कि मृत्यु के पश्चात उन्हें सदगति प्राप्त नहीं हो पायी है। ऐसे पित्रों को सदगति प्रदान करने के लिए पितृ कल्याण अनुष्ठान का आयोजन किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसका आयोजन विभिन्न प्रकार के लोकों में उपस्थित पूर्वजों को पुण्य लाभ पहुंचाने के लिए भी किया जाता है जिसके चलते इस पूजा से प्राप्त होने वाले पुण्य के प्रभाव से इन पित्रों को अपने अपने वर्तमान लोक में शुभ फल प्राप्त हो सकें। यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि वैदिक ज्योतिष के अनुसार की अन्य अनेक पूजाओं की भांति पितृ कल्याण अनुष्ठान का मुख्य लक्ष्य जातक का अपना लाभ नहीं होता अपितु इस पूजा का मुख्य लक्ष्य जातक के इस प्रयास के माध्यम से जातक के पित्रों का कल्याण होता है। यह बात अवश्य है कि इस पूजा को करवाने वाले जातक को अपने पित्रों का आशिर्वाद शुभ फल की भांति प्राप्त होता है क्योंकि ऐसे पित्र अपने कल्याण के लिए प्रयासरत जातक को आशिर्वाद अवश्य देते हैं।

           पितृ कल्याण अनुष्ठान का आरंभ तथा समापन चल रहे समय के अनुसार किसी भी दिन किया जा सकता है तथा पितृ पक्ष अर्थात श्राद्ध के दिन इस पूजा को करने के लिए उत्तम फलदायी होते हैं। पित्र पक्ष प्रत्येक वर्ष में लगभग 15 दिन के लिए आता है तथा इन दिनों में पित्रों से संबंधित पूजाओं के अतिरिक्त किसी भी अन्य देवी देवता अथवा ग्रह नक्षत्र के लिए पूजा करना या करवाना वर्जित माना जाता है तथा इन दिनों में केवल पित्रों के लिए ही पूजाएं करने का प्रवधान है जिसके कारण इस समय को पितृ पक्ष के नाम से भी संबोधित किया जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ है पित्रों के दिन। इसलिए पितृ कल्याण अनुष्ठान को पितृ पक्ष के चलते करवाना उत्तम होता है हालांकि इस पूजा को साल के अन्य समयों में भी करवाया जा सकता है। इस पूजा को पूरा करने के लिए सामान्यता 7 दिन लगते हैं किन्तु कुछ स्थितियों में यह पूजा 7 से 10 दिन तक भी ले सकती है।

           किसी भी प्रकार की पूजा को विधिवत करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है उस पूजा के लिए निश्चित किये गए मंत्र का एक निश्चित संख्या में जाप करना तथा यह संख्या अधिकतर पूजाओं के लिए 125,000 मंत्र होती है तथा पितृ कल्याण अनुष्ठान में भी पितृ गायत्री मंत्र का 125,000 बार जाप करना अनिवार्य होता है। पूजा के आरंभ वाले दिन पांच या सात पंडित पूजा करवाने वाले यजमान अर्थात जातक के साथ भगवान नारायण, शिव परिवार तथा मां शक्ति के समक्ष बैठते हैं तथा भगवान नारायण, शिव परिवार और मां शक्ति की विधिवत पूजा करने के पश्चात मुख्य पंडित यह संकल्प लेता है कि वह और उसके सहायक पंडित उपस्थित यजमान के लिए श्री पितृ गायत्री मंत्र का 125,000 बार जाप एक निश्चित अवधि में करेंगे तथा इस जाप के पूरा हो जाने पर पूजन, हवन तथा कुछ विशेष प्रकार के दान आदि करेंगे। जाप के लिए निश्चित की गई अवधि सामान्यतया 7 से 10 दिन होती है। संकल्प के समय मंत्र का जाप करने वाली सभी पंडितों का नाम तथा उनका गोत्र बोला जाता है तथा इसी के साथ पूजा करवाने वाले यजमान का नाम, उसके पिता का नाम तथा उसका गोत्र भी बोला जाता है तथा इसके अतिरिक्त जातक द्वारा करवाये जाने वाले श्री पित्र गायत्री मंत्र के इस जाप के फलस्वरूप मांगा जाने वाले फल का संकल्प भी बोला जाता है जो साधारणतया किसी विशेष पूर्वज या पूर्वजों को सदगति प्रदान करने के लिए अथवा सभी पित्रों को पुण्य फल प्रदान करने के लिए होता है।

             इस संकल्प के पश्चात सभी पंडित अपने यजमान अर्थात जातक के लिए श्री पितृ गायत्री मंत्र का जाप करना शुरू कर देते हैं तथा प्रत्येक पंडित इस मंत्र के जाप को प्रतिदिन लगभग 8 से 10 घंटे तक करता है जिससे वे इस मंत्र की 125,000 संख्या के जाप को संकल्प के दिन निश्चित की गई अवधि में पूर्ण कर सकें। निश्चित किए गए दिन पर जाप पूरा हो जाने पर इस जाप तथा पूजा के समापन का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है जो लगभग 2 से 3 घंटे तक चलता है। सबसे पूर्व भगवान नारायण, भगवान शिव, मां पार्वती, भगवान गणेश तथा शिव परिवार के अन्य सदस्यों की पूजा फल, फूल, दूध, दहीं, घी, शहद, शक्कर, धूप, दीप, मिठाई, हलवे के प्रसाद तथा अन्य कई वस्तुओं के साथ की जाती है तथा इसके पश्चात मुख्य पंडित के द्वारा श्री पितृ गायत्री मंत्र का जाप पूरा हो जाने का संकल्प किया जाता है जिसमे यह कहा जाता है कि मुख्य पंडित ने अपने सहायक अमुक अमुक पंडितों की सहायता से इस मंत्र की 125,000 संख्या का जाप निर्धारित विधि तथा निर्धारित समय सीमा में सभी नियमों का पालन करते हुए किया है तथा यह सब उन्होंने अपने यजमान अर्थात जातक के लिए किया है जिसने जाप के शुरू होने से लेकर अब तक पूर्ण निष्ठा से पूजा के प्रत्येक नियम की पालना की है तथा इसलिए अब इस पूजा से विधिवत प्राप्त होने वाला सारा शुभ फल उनके यजमान को प्राप्त होना चाहिए।

           इस समापन पूजा के चलते नवग्रहों से संबंधित अथवा नवग्रहों में से कुछ विशेष ग्रहों से संबंधित कुछ विशेष वस्तुओं का दान किया जाता है जो विभिन्न जातकों के लिए भिन्न भिन्न हो सकता है तथा इन वस्तुओं में सामान्यतया चावल, गुड़, चीनी, नमक, गेहूं, दाल, खाद्य तेल, सफेद तिल, काले तिल, जौं तथा कंबल इत्यादि का दान किया जाता है। इसके अतिरिक्त अपने किसी पूर्वज की प्रिय खाने पीने की किसी वस्तु का दान भी किया जा सकता है जैसे अगर किसी के मृतक पिता या दादा जी को आम बहुत प्रिय थे तो ऐसा जातक इस पूजा में आम का दान भी कर सकता है। इसके पश्चात तर्पण आदि विधियों का प्रयोग किया जाता है जिनके माध्यम से भगवान विष्णु से यह प्रार्थना की जाती है कि जातक के द्वारा दान की गई वस्तुएं अपने मूल रूप में अथवा इन वस्तुओं से प्राप्त होने वाले रस या आनंद के समान किसी अन्य प्रकार के आनंद के रूप में जातक के पित्रों को प्राप्त हों।  इस पूजा के समापन के पश्चात उपस्थित सभी देवी देवताओं का आशिर्वाद लिया जाता है तथा तत्पश्चात हवन की प्रक्रिया शुरू की जाती है जो जातक तथा पूजा का फल प्रदान करने वाले देवी देवताओं अथवा ग्रहों के मध्य एक सीधा तथा शक्तिशाली संबंध स्थापित करती है। औपचारिक विधियों के साथ हवन अग्नि प्रज्जवल्लित करने के पश्चात तथा हवन शुरू करने के पश्चात श्री पितृ गायत्री मंत्र का जाप पुन: प्रारंभ किया जाता है तथा प्रत्येक बार इस मंत्र का जाप पूरा होने पर स्वाहा: का स्वर उच्चारण किया जाता है जिसके साथ ही हवन कुंड की अग्नि में एक विशेष विधि से हवन सामग्री डाली जाती है तथा यह हवन सामग्री विभिन्न पूजाओं तथा विभिन्न जातकों के लिए भिन्न भिन्न हो सकती है। श्री पित्र गायत्री मंत्र की हवन के लिए निश्चित की गई जाप संख्या के पूरे होने पर कुछ अन्य महत्वपूर्ण मंत्रों का उच्चारण किया जाता है तथा प्रत्येक बार मंत्र का उच्चारण पूरा होने पर स्वाहा की ध्वनि के साथ पुन: हवन कुंड की अग्नि में हवन सामग्री डाली जाती है।

             अंत में एक सूखे नारियल को उपर से काटकर उसके अंदर कुछ विशेष सामग्री भरी जाती है तथा इस नारियल को विशेष मंत्रों के उच्चारण के साथ हवन कुंड की अग्नि में पूर्ण आहुति के रूप में अर्पित किया जाता है तथा इसके साथ ही इस पूजा के इच्छित फल एक बार फिर मांगे जाते हैं। तत्पश्चात यजमान अर्थात जातक को हवन कुंड की 3, 5 या 7 परिक्रमाएं करने के लिए कहा जाता है तथा यजमान के इन परिक्रमाओं को पूरा करने के पश्चात तथा पूजा करने वाले पंडितों का आशिर्वाद प्राप्त करने के पश्चात यह पूजा संपूर्ण मानी जाती है। हालांकि किसी भी अन्य पूजा की भांति श्री पितृ गायत्री पूजा में भी उपरोक्त विधियों तथा औपचारिकताओं के अतिरिक्त अन्य बहुत सी विधियां तथा औपचारिकताएं पूरी की जातीं हैं किन्तु उपर बताईं गईं विधियां तथा औपचारिकताएं इस पूजा के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं तथा इसीलिए इन विधियों का पालन उचित प्रकार से तथा अपने कार्य में निपुण पंडितों के द्वारा ही किया जाना चाहिए। इन विधियों तथा औपचारिकताओं में से किसी विधि अथवा औपचारिकता को पूरा न करने पर अथवा इन्हें ठीक प्रकार से न करने पर जातक को इस पूजा से प्राप्त होने वाले फल में कमी आ सकती है तथा जितनी कम विधियों का पूर्णतया पालन किया गया होगा, उतना ही इस पूजा का फल कम होता जाएगा।

             पितृ कल्याण अनुष्ठान के आरंभ होने से लेकर समाप्त होने तक पूजा करवाने वाले जातक को भी कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। इस अवधि के भीतर जातक के लिए प्रत्येक प्रकार के मांस, अंडे, मदिरा, धूम्रपान तथा अन्य किसी भी प्रकार के नशे का सेवन निषेध होता है अर्थात जातक को इन सभी वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जातक को इस अवधि में अपनी पत्नि अथवा किसी भी अन्य स्त्री के साथ शारीरिक संबंध नहीं बनाने चाहिएं तथा अविवाहित जातकों को किसी भी कन्या अथवा स्त्री के साथ शारीरिक संबंध नहीं बनाने चाहिएं। इसके अतिरिक्त जातक को इस अवधि में किसी भी प्रकार का अनैतिक, अवैध, हिंसात्मक तथा घृणात्मक कार्य आदि भी नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जातक को प्रतिदिन मानसिक संकल्प के माध्यम से पितृ कल्याण अनुष्ठान के साथ अपने आप को जोड़ना चाहिए तथा प्रतिदिन स्नान करने के पश्चात जातक को इस पूजा का समरण करके यह संकल्प करना चाहिए कि पितृ कल्याण अनुष्ठान उसके लिए अमुक स्थान पर अमुक संख्या के पंडितों द्वारा श्री पित्र गायत्री मंत्र के 125,000 संख्या के जाप से की जा रही है तथा इस पूजा का विधिवत और अधिकाधिक शुभ फल उसे प्राप्त होना चाहिए। ऐसा करने से जातक मानसिक रूप से पितृ कल्याण अनुष्ठान के साथ जुड़ जाता है तथा जिससे इस पूजा से प्राप्त होने वाले फल और भी अधिक शुभ हो जाते हैं।

               यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि पितृ कल्याण अनुष्ठान जातक की अनुपस्थिति में भी की जा सकती है तथा जातक के व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने की स्थिति में इस पूजा में जातक की तस्वीर अर्थात फोटो का प्रयोग किया जाता है जिसके साथ साथ जातक के नाम, उसके पिता के नाम तथा उसके गोत्र आदि का प्रयोग करके जातक के लिए इस पूजा का संकल्प किया जाता है। इस संकल्प में यह कहा जाता है कि जातक किसी कारणवश इस पूजा के लिए व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने में सक्षम नहीं है जिसके चलते पूजा करने वाले पंडितों में से ही एक पंड़ित जातक के लिए जातक के द्वारा की जाने वाली सभी प्रक्रियाओं पूरा करने का संकल्प लेता है तथा उसके पश्चातपूजा के समाप्त होने तक वह पंडित ही जातक की ओर से की जाने वाली सारी क्रियाएं करता है जिसका पूरा फल संकल्प के माध्यम से जातक को प्रदान किया जाता है। प्रत्येक प्रकार की क्रिया को करते समय जातक की तस्वीर अर्थात फोटो को उपस्थित रखा जाता है तथा उसे सांकेतिक रूप से जातक ही मान कर क्रियाएं की जातीं हैं। उदाहरण के लिए यदि जातक के स्थान पर पूजा करने वाले पंडित को भगवान नारायण को पुष्प अर्थात फूल अर्पित करने हैं तो वह पंडित पहले पुष्प धारण करने वाले अपने हाथ को जातक के चित्र से स्पर्श करता है तथा तत्पश्चात उस हाथ से पुष्पों को भगवान नारायण को अर्पित करता है तथा इसी प्रकार सभी क्रियाएं पूरी की जातीं हैं। यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि व्यक्तिगत रूप से अनुपस्थित रहने की स्थिति में भी जातक को पितृ कल्याण अनुष्ठान के आरंभ से लेकर समाप्त होने की अवधि तक पूजा के लिए निश्चित किये गए नियमों का पालन करना होता है भले ही जातक संसार के किसी भी भाग में उपस्थित हो। इसके अतिरिक्त जातक को उपर बताई गई विधि के अनुसार अपने आप को इस पूजा के साथ मानसिक रूप से संकल्प के माध्यम से जोड़ना भी होता है जिससे इस पितृ कल्याण अनुष्ठान के अधिक से अधिक शुभ फल जातक को प्राप्त हो सकें।    

ध्यानार्थ : भारतवर्ष के विभिन्न प्रांतों एवम क्षेत्रों में स्थानीय मान्यताओं में अंतर होने के कारण विभिन्न्न क्षेत्रों के पंडित ऊपर बताई गई पूजा विधि में कुछ बदलाव कर सकते हैं ।  पाठकों को सुझाव दिया जाता है कि यदि आपके पंडित अपनी स्थानीय मान्यताओं के चलते इस पूजा को शुरू करने के दिन में, पूजा करने वाले पंडितों की संख्या में अथवा प्रतिदिन कितने घंटे मंत्र का जाप किया जाएगा, इन नियमों में कोई संशोधान करते हैं तो ऐसी स्थिति में पूजा करने वाले पंडितों के सुझाव को मान्यता दे देनी चाहिए तथा उनके साथ विवाद नहीं करना चाहिए ।